क्यों सूख रहा है पहाड़ का पानी और जवानी..?


उत्तराखंड के संसदीय कार्य मंत्री प्रेमचंद अग्रवाल ने हाल ही में इस्तीफा दिया, लेकिन उनके विवादास्पद बयान ने राज्य में एक बार फिर पहाड़ और मैदान के बीच की खाई को गहरा कर दिया। विधानसभा के बजट सत्र में उनके यह कहने पर कि “क्या उत्तराखंड सिर्फ पहाड़ वालों के लिए है?”, पूरा राज्य सड़कों पर उतर आया। BJP के अपने ही विधायकों ने इस बयान को गलत बताया, और आखिरकार 17 मार्च को अग्रवाल को इस्तीफा देना पड़ा।
लेकिन सवाल यह है कि क्या इस्तीफे से समस्या हल हो गई? या फिर यह सिर्फ एक राजनीतिक चाल थी? उत्तराखंड की जनता के मन में अब भी वही सवाल गूंज रहा है_ क्यों सूख रहा है पहाड़ का पानी और जवानी?
ढाई दशक पहले चले अलग उत्तराखंड आंदोलन और 42 शहादतों के बाद बना यह राज्य फिर सुलग रहा है। एक तरफ लोग अपनी अस्मिता, जमीन और हक के लिए सड़कों पर हैं, तो दूसरी तरफ नेताओं के भड़काऊ बयान इस आग में घी डालने का काम कर रहे हैं। राज्य बनने के बाद पहाड़ की जनता ने विकास, रोजगार, अपनी जमीन पर हक के जो सपने देखे थे, आज वे अधूरे पड़े हैं। अधूरे सपने के असंतोष को प्रेमचंद अग्रवाल के बयान ने और भड़का दिया।
उत्तराखंड की जनता हमेशा से बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा और रोजगार जैसे बुनियादी मुद्दों के लिए लड़ती रही है। 1979 में शुरू हुआ उत्तराखंड क्रांति दल (UKD) इसी असंतोष की उपज था। 1990 के दशक में आंदोलन उग्र हुआ, जब मुलायम सिंह की सरकार ने मैदानी लोगों को पहाड़ों में बसाने की बात कही। 1994 में रामपुर तिराहा की हिंसक मुठभेड़ में कई लोगों अपनी जान कुर्बान करनी पड़ी और अपनी शहादत दी।
इसके बाद आठ पहाड़ी जिलों के साथ अलग राज्य का प्रस्ताव बना, जिसमें बाद में मायावती ने तराई के उधम सिंह नगर और हरिद्वार जैसे मैदानी इलाके जोड़ दिए। नवंबर 2000 में उत्तराखंड तो बना, लेकिन इसकी पहचान एक पहाड़ी राज्य के बजाय जनसांख्यिकीय असंतुलन से कमजोर हो गई।
चौड़ी होती खाई
आज हालात ये हैं कि देहरादून, हरिद्वार और उधम सिंह नगर जैसे मैदानी इलाकों में स्कूल, अस्पताल और उद्योग हैं, जबकि पहाड़ी इलाकों के हजारों गांव ‘भुतहा’ बन चुके हैं, जहां कोई नहीं रहता। पिछले दो-तीन सालों से युवा भू-कानून और मूल निवास की मांग को लेकर सड़कों पर हैं। उनकी चिंता है कि राज्य की जमीन बाहरी लोगों, ठेकेदारों और कॉरपोरेट को दी जा रही है। सरकार ने भू-कानून में संशोधन के नाम पर मैदानी जिलों को इसके दायरे से बाहर रखा, जिससे पहाड़-मैदान की खाई और चौड़ी हो गई है।
पानी और जवानी क्यों सूख रही है
अग्रवाल के बयान ने इस असंतोष को पहाड़ की अस्मिता से जोड़ दिया। जब बदरीनाथ के कांग्रेस विधायक लखपत बुटोला ने विरोध किया, तो स्पीकर का रवैया देख लोगों को लगा कि उनकी पहचान को चुनौती दी जा रही है। पिछले एक महीने से प्रदर्शन चल रहे हैं। युवाओं ने पुतले जलाए, आमरण अनशन किया, अपने खून से राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखी।
वहीं गैरसैंण में आंदोलनकारियों को ‘सड़क छाप’ कहने वाले महेंद्र भट्ट के खिलाफ भी गुस्सा भड़का। दबाव में अग्रवाल का इस्तीफा हुआ, पर सवाल वही बने हुए हैं कि पहाड़ का पानी और जवानी क्यों सूख रही है? केंद्र का देवभूमि को पर्यटन हब बनाने का सपना क्या पहाड़ियों को और बेदखल नहीं करेगा?
पहचान की लड़ाई
अंग्रेजों ने यह अच्छे से समझा था कि हिमालय सिर्फ पेड़-पौधों का खजाना नहीं, बल्कि संस्कृतियों और पहचान का संगम है। मगर आज सरकारें इसे भुला चुकी हैं। इसके चलते तराई में आय बढ़ी, पर केदारनाथ और जोशीमठ जैसे नाजुक इलाके तबाह हो गए।
युवा अब जल, जंगल, जमीन और रोजगार के लिए नया आंदोलन कर रहे हैं। उन्होंने अपना राजनीतिक मोर्चा बनाया है। सवाल यह है कि क्या क्षेत्रवाद के बीज जो कभी यहां नहीं थे, अब और गहरे होंगे? उत्तराखंड की जनता अपनी असली पहचान और हक की लड़ाई कितनी दूर ले जा पाएगी, यह वक्त बताएगा।


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