उत्तराखंड : आनंदी पेड़ो से लिपटी उम्मीद,गौरा देवी की विरासत को नई आवाज़..

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देहरादून : पर्यावरण और महिला शक्ति का भावनात्मक संगम दिखाने वाली लघु फिल्म ‘आनंदी’, जो गौरा देवी और चिपको आंदोलन से प्रेरित है, ने दर्शकों के दिलों को गहराई से छू लिया है। इस फिल्म में यह भी दिखाया गया है कैसे अक्सर नेताओं और बड़े व्यापारियों ने उत्तराखंड राज्य का और उसके लोगो का सिर्फ इस्तमाल ही किया है ।


फिल्म में प्रकृति के प्रति प्रेम और महिलाओं की अदम्य हिम्मत को बड़े ही संवेदनशील अंदाज़ में दिखाया गया है।
इस प्रेरक विषय और शानदार प्रस्तुति के लिए ‘आनंदी’ ने ग्राफिक एरा विश्वविद्यालय के ‘हिमप्रवाह’ फिल्म फेस्टिवल में दूसरा स्थान हासिल किया — जो फिल्म की सफलता और इसके सामाजिक संदेश दोनों की गूंज को और मजबूत बनाता है।


कभी उत्तराखंड के रैणी गांव में एक महिला ने पेड़ों को बचाने के लिए उन्हें गले से लगा लिया था।
वह थीं — गौरा देवी, जिन्होंने “चिपको आंदोलन” को वह रूप दिया जिसने पूरी दुनिया को हिला दिया।
आज उसी भावना को दोहराती है एक लघु फिल्म — “आनंदी”, जो हमें याद दिलाती है कि धरती मां की रक्षा अब भी अधूरी कहानी है।


कहानी जो दिल में जड़ें जमाती है

‘आनंदी’ सिर्फ़ एक किरदार नहीं, बल्कि हर उस महिला की आवाज़ है जो अपनी मिट्टी से प्यार करती है।
जब जंगलों को विकास के नाम पर काटा जाने लगता है,
तो एक युवती “आनंदी” आगे बढ़कर वही करती है जो कभी गौरा देवी ने किया था —
पेड़ों से लिपटकर उनका जीवन बचाना।

फिल्म के दृश्यों में मिट्टी की सोंधी खुशबू है,
हवा की करुण पुकार है,
और उस नारी की दृढ़ता है जो कहती है —

“ये पेड़ हमारे परिवार हैं, इन्हें काटोगे तो हमारी सांस रुक जाएगी।”

महिला शक्ति की हरियाली

‘आनंदी’ यह साबित करती है कि महिला शक्ति केवल घर की दीवारों तक सीमित नहीं।
जब धरती की रक्षा की बात आती है, तो वही आगे बढ़ती हैं।
यह फिल्म महिलाओं की संवेदना, उनके साहस और उनके प्रेम को प्रकृति से जोड़ती है।

हर फ्रेम में यह संदेश गूंजता है कि धरती को बचाना किसी का कर्तव्य नहीं, सबकी जिम्मेदारी है।


आज के दौर का आईना

ग्लोबल वार्मिंग, जंगलों की कटाई और प्रदूषण — ये सब आधुनिक युग की त्रासदियां हैं।
‘आनंदी’ इन सबके बीच एक छोटी सी पर गहरी बात कहती है —

>“हम पेड़ों के बिना नहीं जी सकते, लेकिन पेड़ हमारे बिना ज़रूर जी सकते हैं।”



यह संवाद आज के समाज के लिए आईना है।
फिल्म हमें सोचने पर मजबूर करती है कि क्या विकास की दौड़ में हम अपनी जड़ें काट रहे हैं?


गौरा देवी से आनंदी तक

फिल्म ‘आनंदी’ असल में गौरा देवी की विरासत का विस्तार है।
वो विरासत जिसमें औरतें पहाड़ों से नहीं डरतीं — वे खुद पहाड़ बन जाती हैं।
फिल्म के अंत में जब आनंदी हवा के साथ पेड़ों की ओर देखती है,
तो ऐसा लगता है जैसे गौरा देवी खुद मुस्कुरा रही हों —
“लड़ाई वही है, बस लड़ने वाली पीढ़ी बदल गई

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