सरहद का सिपाही,सिस्टम का शिकार – बेटे की जान न बचा सका, अब जांच से क्या होगा..

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सिस्टम से सवाल

उत्तराखंड –
देश की सीमाओं पर तैनात एक फौजी पिता, दिनेश चंद्र, अपने डेढ़ साल के बेटे शुभांशु को नहीं बचा सका। कारण ..सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था की लापरवाही, समय पर एंबुलेंस न मिलना और अस्पतालों की जिम्मेदारी से भागती मानसिकता। 10 जुलाई की वो काली रात, जब दिनेश का बेटा जिंदगी की जंग हार गया, हर उस आम आदमी के लिए एक सवाल है जो सिस्टम पर भरोसा करता है।

इलाज से पहले शुरू हुआ ‘रेफर रूट’ – ग्वालदम से हल्द्वानी तक की दौड़

चमोली जिले के दूरस्थ चिडंगा गांव से शुभांशु की तबीयत बिगड़ने पर परिवार ग्वालदम अस्पताल पहुंचा, जहां इलाज नहीं मिला। वहां से बैजनाथ, फिर बागेश्वर रेफर किया गया। हर अस्पताल ने खुद को जिम्मेदार मानने की बजाय “हायर सेंटर” भेजने की रस्म निभाई। शाम 6 बजे बागेश्वर पहुंचने के बाद वहां के डॉक्टरों ने भी शुभांशु की गंभीर हालत का हवाला देकर उसे फिर रेफर कर दिया।

बागेश्वर अस्पताल से अल्मोड़ा ले जाने के लिए जब परिवार ने 108 एंबुलेंस सेवा को कॉल किया, तो सिर्फ आश्वासन मिला। बच्चा दर्द में तड़पता रहा और परिवार एंबुलेंस का इंतजार करता रहा। अंततः फौजी पिता को खुद जिलाधिकारी को फोन करना पड़ा। रात साढ़े 9 बजे जाकर एंबुलेंस मिली। अल्मोड़ा से शुभांशु को हल्द्वानी के सुशीला तिवारी अस्पताल भेजा गया, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। बेटे की सांसें थम गईं।

सोशल मीडिया पर छलका फौजी पिता का दर्द – सिस्टम पर उठे तीखे सवाल

बेटे के अंतिम संस्कार के बाद दिनेश चंद्र ने सोशल मीडिया पर एक मार्मिक वीडियो साझा किया। उन्होंने सवाल उठाया “क्या मेरा बेटा किसी वीआईपी का होता तो क्या तब भी उसे इतनी देर मिलती? मैं देश की सरहद पर खड़ा हूं, लेकिन अपने ही बेटे को नहीं बचा पाया।”

वीडियो वायरल हुआ, और सिस्टम की नींद टूटी। सीएमओ बागेश्वर डॉ. कुमार आदित्य तिवारी ने जांच के आदेश देते हुए 108 सेवा प्रभारी को नोटिस जारी किया। दोषी स्वास्थ्यकर्मियों पर कार्रवाई का आश्वासन दिया गया है।

डॉक्टर से मांगी सफाई, जवाब में मिला रूखापन

दिनेश चंद्र ने आरोप लगाया कि उन्होंने अस्पताल में इमरजेंसी ड्यूटी पर मौजूद डॉक्टर भूपेंद्र घटियाल से एंबुलेंस में देरी को लेकर सवाल किया, लेकिन डॉक्टर ने कोई स्पष्ट जवाब नहीं दिया और कथित रूप से अभद्रता की। यह रवैया एक पिता को भीतर तक तोड़ गया।

सवाल – क्या खोई हुई जान वापस आ सकती है?

परिवार का सवाल वाजिब है – “अब किस बात की जांच? जब जिंदगी ही चली गई तो जवाबदेही का क्या अर्थ रह गया?” पहाड़ी राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं की दशा पहले से ही चिंताजनक है। दिनेश चंद्र का मामला उन कई अनसुने मामलों की सिर्फ एक है, जो हर दिन किसी न किसी गांव में घटते हैं।

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