उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने मसूरी के वनाधिकारियों के खिलाफ सूबे के पूर्व डी.जी.पी. बी.एस.सिद्धू द्वारा दायर मुकदमे में ट्रायल कोर्ट में चल रहे वाद पर रोक लगा दी है। एकलपीठ ने मामले को चार सप्ताह के बाद सूचीबद्ध करने को कहा है।
वर्ष 2013 में तत्कालीन डी.जी.पी. बी.एस.सिद्धू ने वन अधिकारियों के खिलाफ एक एफ.आई.आर.दर्ज की थी। ये एफ.आई.आर.तत्कालीन डी.एफ.ओ. डॉ.धिराज पाण्डे व अन्य अधिकारियों के खिलाफ दर्ज की गई थी। अधिवक्ता कार्तिकेय हरि गुप्ता ने बताया कि वनों की रक्षा करने वाले अधिकारियों के खिलाफ ही वन काटने की एफ.आई.आर.दर्ज होने के खिलाफ वन अधिकारी उच्च न्यायालय पहुंचे।
आरोप लगाया कि 1970 में ही सुरक्षित वन निर्धारित किये गए वन को डी.जी.पी. बी.एस.सिद्धू ने वर्ष 2012 में खरीद लिया। आरोप है कि 20 नवंबर 2012 में लगभग 7450 वर्ग मीटर आरक्षित वन भूमि बीरेंद्र सिंह सिद्धू द्वारा एक ढोंगी विक्रेता नाथू राम से खरीदी गई।
तत्कालीन डी.जी.पी. राज्य के बी.एस.सिद्धू ने 9 जुलाई 2013 को मसूरी के डी.एफ.ओ. डॉ.धीरज पाण्डेय व अन्य वन अधिकारियों के विरुद्ध झूठी प्राथमिकी दर्ज की और उसके बाद ट्रायल कोर्ट ने समन जारी किया। डॉ. धीरज पांडे (वर्तमान में कॉर्बेट नेशनल पार्क के निदेशक)के अधिवक्ता डॉ.कार्तिकेय हरि गुप्ता ने बताया कि फर्जी तरीके से आरक्षित वन भूमि को तत्कालीन डी.जी.पी. बी.एस.सिद्धू ने अवैध रूप से आरक्षित वन के पेड़ों को काटा। उन्होंने न्यायालय को 10 अप्रैल 2013 का वो पत्र दिखाया जिसमें तत्कालीन डी.जी.पी.सत्यव्रत ने उचित जांच के बाद सरकार को सिफारिश की कि बी.एस.द्वारा धोखाधड़ी करने की संभावना है। सिद्धू के खिलाफ अन्य सरकारी जाँचें हैं जिनमें बी.एस.सिद्धू को संदिग्ध पाया गया। अधिवक्ता ने ये भी बताया कि नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने बी.एस.सिद्धू को आरक्षित वन को नष्ट करने का दोषी पाया और उसके खिलाफ 46,14,960/- रुपये का जुर्माना लगाया। न्यायमूर्ति रविन्द्र मैठाणी की एकलपीठ ने पूरे मामले पर विचार किया और वन अधिकारियों के खिलाफ मामले की आगे की कार्यवाही पर रोक लगा दी है। मामले को चार सप्ताह के बाद सूचीबद्ध करने को कहा गया है।
वरिष्ठ पत्रकार कमल जगाती
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